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होली:- आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा स्वास्थ्य लाभ का अनुठा संगम

होली के त्यौहार की बात मन में आते ही कुछ बातें याद आती हैं, ऊबटन से पूरे शरीर की मालिस, होलिका दहन, तेज आवाज मे गीत गाना, एक दुसरे पर रंगों की वर्षा करना,नये वस्त्र पहनना, आपसी बैर भाव मिटाकर अबीर- गुलाल लगाना इत्या।ि, होली के त्यौहार से शिशिर की समाप्ति व बसंत का आगमन होता है। अर्थात् ठण्ड के मौसम का अन्त व गर्मी के मौसम की शुरूआत होती है। आयुर्वेद के अनुसार दो ऋतुओं के संक्रमण काल में मानव शरीर पर अनेक प्रकार के संक्रामक रोगों का आक्रमण होता है। शिशिर में शीत के प्रभाव से शरीर मंे कफ की अधिकता हो जाती है और बसंत में तापमान बढ़ने पर कफ के शरीर से बाहर निकलने की क्रिया मे कफ दोष पैदा होता है। परिणामस्वरूप सर्दी, खाँसी, श्वास की बिमारियाँ, खसरा, चेचक, कॉलरा, हाईग्रेड फिवर, डायरिया, पीलिया ईत्यादि बिमारियाँ होने का खतरा बढ़ जाता है। बसंत का मौसम मध्यम तापमान के कारण शरीर में आलस्य पैदा करता है।
बसंत में शीत वात एवं आम वात का प्रभाव शरीर को प्रमादी एवं क्रीमियों से युक्त बना देती है। इससे निराकरण के लिए होलिका दहन के पूर्व घरों में ऊबटन से सम्पूर्ण शरीर मालिस किया जाता है। ऊबटन शरीर के त्वचा को साफ करने के साथ ही साथ रोमछिद्रों को खोल देती है। रक्त संचार त्वचा की तरफ होता है एवं शरीर से अशुद्धियाँ त्वचा के माध्यम से बाहर निकल जाती हैं।
इस समय संक्रामक रोगों के बैक्टिरिया तीव्र गति से वृद्धि करते हैं। इन संक्रामक रोगों के बैक्टिरिया को वायुमण्डल में ही भष्म कर देने का सामुहिक अभियान है होलिकादहन
पूरे देश में रात्रि में एक ही दिन, एक ही समय होलिका जलाई जाती है। इससे लगभग 145 डिग्री फारेनहाईट तक तापमान बढ़ता है, जिससे वायुमण्डल मे उपस्थित बैक्टिरिया जलकर भष्म हो जाते हैं। साथ ही साथ जलती होलिका के चारो ओर परिक्रमा करने की परम्परा है। परिक्रमा करने से 140 डिग्री फारेनहाईट गर्मी शरीर मंे प्रवेश कर जाती है। उसके बाद यदि रोग उत्पन्न करने वाले बैक्टिरिया हम पर आक्रमण करते हैं तो उनका प्रभाव शरीर पर नही होता अपितु हमारे शरीर मे आ चुकी गर्मी से वे स्वयं नष्ट हो जाते हैं। साथ ही साथ होलिका में गाड़ा गया रेड़ का पेड़ जलने से शीत वात एवं आमवात रोग का नाश हो जाता है।
प्राकृतिक चिकित्सा के रंग चिकित्सा के अनुसार एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे शरीर में रंग विशेष की कमी कई बिमारियों को जन्म देती है और उन रोगों को केवल उस रंग की आपूर्ति शरीर को कर देने मात्र से सम्बन्धित रोग स्वतः ठीक हो जाते हैं। परम्परा के अनुसार एक दुसरे पर विभिन्न रंगों की वर्षा करने व अबीर-गुलाल लगाने से रंगों के आयन रोमकुपों की सहायता से शरीर मे प्रवेश कर जाते हैं व रंगों की असमानता पूर्ण हो जाती है और लोग प्रसन्नतापूर्वक स्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन व्यतीत करते हैं।
इस पर्व पर आपसी मतभेद दूरकर होली मनाने की परम्परा है जो आपसी भाईचारे व सामाजिक सौहार्द का द्योतक है। ध्धन्य हैं हमारे पूर्वज जिन्होंने अपने अनुभव व महान दूरगामी सोच से करोड़ों वर्ष पूर्व ही होली जैसा पर्व बनाये। धन्य है भारत वर्ष, धन्य है भारत वर्ष के पर्व, धन्य हैं भारत वर्ष के लोग जो अपने पूर्वजों द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करते हैं।
बाजार में उपलब्ध विभिन्न रंगों से होली खेलने से उत्पन्न होने वाले रोगः-
हरा रंगः इसमें कॉपर सल्फेट होता है जिससे आँख में एलर्जी व छणिक अन्धापन हो जाता है।

लाल रंगः इसमे मर्करी सल्फाईड होता है जिससे त्वचा कैंसर, मानसिक मन्दता,लकवा व दृष्टि दोष हो जाता है।

नीला रंगः इसमें प्रुसियन ब्लू होता है जिसस विभिन्न प्रकार के त्वचा रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

काला रंगः इसमे लेड ऑक्साईड होता है जिससे किडनी फेल्योर जैसे घातक रोग हो जाते हैं।

सिल्वर रंग: इसमे एल्युमिनियम ब्रोमाईड होता है जिससे कैंसर होता है।

पर्पल रंगः इसमे क्रोमियम आयोडाईड होता है जिससे ब्रांकियल अस्थमा एवं एलर्जी जैसे रोग हो जाते हैं।
अतः हमंे इन केमिकल युक्त रंगों का बहिष्कार करना चाहिए क्योंकि ये स्वास्थ्य के लिए नुकसान दायक हैं हमें प्राकृतिक चीजों से रंग बनाकर होली खेलना चाहिए जो हमंे स्वस्थ रखे साथ ही साथ प्राकृतिक चिकित्सा के रंग चिकित्सा का पालन कर हमें आरोग्य प्रदान कर सके जैसा हमारे पूर्वजों का विचार था।

प्राकृतिक रंग बनाने की विधियाँः-

केशरिया रंग- पलाश के फूलों को रात में पानी मंे भिगो दें सुबह इस केशरिया रंग को ऐसे ही प्रयोग में लाये या उबालकर होली खेलें कफ, पित्त, कुष्ठ दर्द, मुत्र कृच्छ, वायु तथा रक्त दोष का नाश होता है। पलास के फूल से बने रंग से खेलने के दौरान यदि रंग आँख मंे पड़ जाये तो इससे आँख के रोगों से छुटकारा मिल जाता है, त्वचा सुन्दर हो जाती है, त्वचा के क्रीमियों का नाश हो जाता है व रक्त विकार दूर हो जाते हैं।

सुखा हरा रंग- मेंहदी का पाउडर तथा गेहूँ के आटे को समान मात्रा मे मिलाकर सुखा हरा रंग बनाएँ।

भूरा रंग- आंवला चूर्ण व मेहदी को मिलाकर बनाये यह त्वचा व बालों के लिए लाभदायक है।

सुखा पीला रंग- हल्दी व बेसन मिलाकर अथवा अमलतास व गेंदे के फूलों को छाया मे सुखाकर पीसकर पीला रंग बना लिजिए।

गीला पीला रंग- एक चम्मच हल्दी दो लीटर पानी मे उबालें या अमलतास व गेदे के फूलों को रात को पानी मे भिगोकर रख दें व सुबह उबाल दें।

लाल रंग- लाल चंदन पाउडर को सुखे लाल रंग के रूप में प्रयोग करें ,यह त्वचा के लिए लाभदायक व सौन्दर्यवर्द्धक है।
या दो चम्मच लाल चंदन एक लीटर पानी मे डालकर उबाल कर प्रयोग मे लें।

जामुनी रंग- चुकन्दर पीसकर पानी मे मिला दें।
काला रंग –आवला चूर्ण रातभर लोहे के बर्तन में भीगो दे।

हरा रंग- पालक, धनिया या पुदीना के पत्तियों को पेस्ट बनाकर पानी मे मिलाकर होली. खेले। या गेहूँ की हरी बालियों को पीसकर पानी में मिलाकर प्रयोग करें।

पीला गुलाल- 4 चम्मच बेसन मे 2 चम्मच हल्दी चूर्ण मिलाकर गुलाल लगायें।

लाल गुलाल-सुखे लाल गुड़हल के फूलों का चूर्ण उपयोग करें।
हरा गुलाल-गुलमोहर अथवा रात रानी की पत्तियों को सुखाकर पीस लीजिए।

भूरा हरा गुलाल- मंेहदी चूर्ण के साथ आवला चूर्ण मिला कर बनायें और होली का पर्व हर्सोल्लास के साथ मनायें।
खाद्य पदार्थों का होली के पर्व पर अलग महत्व है लेकिन इनमें सिंथेटिक रंग का प्रयोग मानव स्वास्थ्य के लिए घातक साबित हो रहा है।
सबसे अधिक हानिकारक हरा रंग है इसमे मैला काइट ग्रीन होता है जो कैंसर का कारक है। हरे रंग से निर्मित नली, नमकीन, पापड़, मिठाईयाँ ईत्यादि के सेवन से कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है।
मिलावटी दूध व इससे निर्मित खाद्य पदार्थों के सेवन से पेट की बिमारियों सहित लीवर खराब होने का खतरा अधिक होता है। मिठाईयों पर चाँदी के वर्क के स्थान पर एल्युमिनियम का वर्क प्रयोग किया जा रहा है जिससे याददाश्त जाने की संभावना बढ़ जाती है।
होली की मंगलकामनाओं सहित

Vaid Deepak Kumar
Adarsh Ayurvedic Pharmacy
Kankhal Hardwar aapdeepak-hdr@gmail-com
9897902760

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